छतरपुर: देश जब डिजिटल इंडिया और चंद्रयान की कामयाबियों पर गर्व कर रहा है, तब मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में एक आदिवासी परिवार पेट की आग बुझाने के लिए केन नदी की मिट्टी छान रहा है। ये कहानी सिर्फ गरीबी की नहीं, बल्कि एक सिस्टम की नाकामी की है, जो अब भी ज़रूरतमंदों तक बुनियादी सुविधाएं नहीं पहुंचा सका।
नदी की गोद में रोटी की उम्मीद
फूलचंद्र आदिवासी, जो सतना जिले के एक छोटे से गांव से ताल्लुक रखते हैं, हर रोज़ अपने परिवार के साथ छतरपुर और पन्ना जिले की सीमा पर बहती केन नदी पर पहुंचते हैं। उनके हाथ में एक पुरानी छलनी होती है, और आंखों में उम्मीद कि आज कुछ ऐसा मिल जाए जो बाजार में बिक सके। कभी कोई जंग लगा सिक्का, कभी टूटा हुआ लोहे का टुकड़ा—जो कुछ भी मिलता है, उसी से दिन का खाना जुटता है।
ना गैस, ना जलावन — सिर्फ मिट्टी
गांवों में उज्ज्वला योजना का नाम तो सबने सुना है, लेकिन फूलचंद्र जैसे लोगों तक इसका लाभ नहीं पहुंच पाया। गैस सिलेंडर महंगे हैं, और लकड़ी खरीदना तो नामुमकिन। ऐसे में ये परिवार नदी की रेत से ही जलावन या बिकाऊ सामान खोजने को मजबूर हैं।
बीमारी, जोखिम और उपेक्षा
नदी की मिट्टी में घंटों काम करने से इन्हें त्वचा रोग, बुखार और मलेरिया जैसी बीमारियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन न तो कोई स्वास्थ्य शिविर लगता है, न ही कोई सरकारी निगरानी होती है।
स्थानीय संगठनों की मांग
स्थानीय सामाजिक संस्थाओं ने सरकार से मांग की है कि:
• उज्ज्वला योजना के तहत सिलेंडर रिफिल सब्सिडी दी जाए
• वैकल्पिक ईंधन की सुलभता हो
• आदिवासी परिवारों को आजीविका से जोड़ने वाली योजनाएं लागू की जाएं
कहानी जो सोचने पर मजबूर करती है
फूलचंद्र की कहानी हमें यह सिखाती है कि हालात चाहे जैसे भी हों, जीने की कोशिशें रुकती नहीं। जब इरादा मजबूत हो, तो इंसान मिट्टी में भी रोटी ढूंढ सकता है।